Thursday 25 July 2013

चाणक्य का नीति दर्पण -

चाणक्य का नीति दर्पण -                                                        चाणक्य नीति-दर्पण कहता है कि आचार्य चाणक्य भारत का महान गौरव है। चाणक्य कर्तव्य की वेदी पर मन की भावनाओं की होली जलाने वाले एक धैर्यमूर्ति भी थे। और उनके इसी आचरण पर भारत को गर्व है। महान शिक्षक, प्रखर राजनीतिज्ञ एवं अर्थशास्त्रकार चाणक्य का भारत में स्थान विशेष है। वे स्वभाव से स्वाभिमानी, संयमी तथा बहुप्रतिभा के धनी थे। 

चाणक्य ने अपने निवास स्थान पाटलीपुत्र से तक्षशीला प्रस्थान कर शिक्षा प्राप्त की और राजनीति के प्रखर प्राध्यापक बने। उन्होंने हमेशा ही देश को एकसूत्र में बांधने का प्रयास किया। भारत भर के जनपदों में वे घूमें। 

एक सामान्य आदमी से लेकर बड़े-बड़े विद्वानों को उन्होंने राष्ट्र के प्रति जागृत किया।अपने पराक्रमी शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध के सिंहासन पर बिठाने के बाद वे महामंत्री बने पर फिर भी एक सामान्य कुटिया में रहे और अपने त्याग, साहस एवं विद्वत्ता को आमजन के समक्ष पेश किया। एक बार चीन के प्रसिद्ध यात्री फाह्यान ने जब यह देखा तो बहुत आश्चर्य व्यक्त किय, तो उन्होंने उत्तर दिया- 

जिस देश का महामंत्री सामान्य कुटिया में रहता है, और वहां के नागरिक भव्य भवनों में निवास करते हैं। वहां के नागरिकों को कभी कष्टों का सामना नहीं करना पड़ता। राजा और प्रजा दोनों सुखी रहती है। ऐसे महान विचारक और आदर्श से जीने वाले आचार्य चाणक्य आखिर इतने बड़े साम्राज्य के महामंत्री का जीवन इतना सादगीपूर्ण हो सकता है, उसने सोचा तक न था। 

चाणक्य ने उसे भारतीय जीवन पद्धति में सरलता के महत्व के बारे में समझाया। चाणक्य के इस आचरण से उस चीनी यात्री का मन उनके प्रति श्रद्धा से भर उठा। 









चाणक्य ने ली सीख-

चाणक्य ने ली सीख !-   

                                                     एक समय की बात है। चाणक्य अपमान भुला नहीं पा रहे थे। शिखा की खुली गांठ हर पल एहसास कराती कि धनानंद के राज्य को शीघ्राति शीघ्र नष्ट करना है। चंद्रगुप्त के रूप में एक ऐसा होनहार शिष्य उन्हें मिला था जिसको उन्होंने बचपन से ही मनोयोग पूर्वक तैयार किया था।अगर चाणक्य प्रकांड विद्वान थे तो चंद्रगुप्त भी असाधारण और अद्भुत शिष्य था। चाणक्य बदले की आग से इतना भर चुके थे कि उनका विवेक भी कई बार ठीक से काम नहीं करता था। 

चंद्रगुप्त ने लगभग पांच हजार घोड़ों की छोटी-सी सेना बना ली थी। सेना लेकर उन्होंने एक दिन भोर के समय ही मगध की राजधानी पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया। चाणक्य, धनानंद की सेना और किलेबंदी का ठीक आकलन नहीं कर पाए और दोपहर से पहले ही धनानंद की सेना ने चंद्रगुप्त और उसके सहयोगियों को बुरी तरह मारा और खदेड़ दिया।चंद्रगुप्त बड़ी मुश्किल से जान बचाने में सफल हुए। चाणक्य भी एक घर में आकर छुप गए। वह रसोई के साथ ही कुछ मन अनाज रखने के लिए बने मिट्टी के निर्माण के पीछे छुपकर खड़े थे। पास ही चौके में एक दादी अपने पोते को खाना खिला रही थी। दादी ने उस रोज खिचड़ी बनाई थी। खिचड़ी गरमा-गरम थी। दादी ने खिचड़ी के बीच में छेद करके गरमा-गरम घी भी डाल दिया था और घड़े से पानी भरने गई थी। थोड़ी ही देर के बाद बच्चा जोर से चिल्ला रहा था और कह रहा था- जल गया, जल गया। 

दादी ने आकर देखा तो पाया कि बच्चे ने गरमा-गरम खिचड़ी के बीच में अंगुलियां डाल दी थीं।दादी बोली- 'तू चाणक्य की तरह मूर्ख है, अरे गरम खिचड़ी का स्वाद लेना हो तो उसे पहले कोनों से खाया जाता है और तूने मूर्खों की तरह बीच में ही हाथ डाल दिया और अब रो रहा है...।' चाणक्य बाहर निकल आए और बुढ़िया के पांव छूए और बोले- आप सही कहती हैं कि मैं मूर्ख ही था तभी राज्य की राजधानी पर आक्रमण कर दिया और आज हम सबको जान के लाले पड़े हुए हैं।

चाणक्य ने उसके बाद मगध को चारों तरफ से धीरे-धीरे कमजोर करना शुरू किया और एक दिन चंद्रगुप्त मौर्य को मगध का शासक बनाने में सफल हुए। ­

चाणक्य की मातृ भक्ति-

1-  चाणक्य की मातृ भक्ति-                                                                    बहुत पुरानी बात है। गुप्त काल में मगध में जन्मे चाणक्य बड़े मातृभक्त और विद्यापरायण थे। एक दिन उनकी माता रो रही थी। 

माता से कारण पूछा तो उन्होंने कहा, 'तेरे अगले दांत राजा होने के लक्षण हैं। तू बड़ा होने पर राजा बनेगा और मुझे भूल जाएगा।' चाणक्य हंसते हुए बाहर गए और दोनों दांत तोड़कर ले आए और बोले, 'अब ये लक्षण मिट गए, अब मैं तेरी सेवा में ही रहूंगा। तू आज्ञा देगी तो आगे चलकर राष्ट्र देवता की साधना करूंगा।' 

बड़े होने पर चाणक्य पैदल चलकर तक्षशिला गए और वहां चौबीस वर्ष पढ़े। अध्यापकों की सेवा करने में वे इतना रस लेते थे कि सब उनके प्राणप्रिय बन गए। सभी ने उन्हें मन से पढ़ाया और अनेक विषयों में पारंगत बना दिया।लौटकर मगध आए तो उन्होंने एक पाठशाला चलाई और अनेक विद्यार्थी अपने सहयोगी बनाए। उन दिनों मगध का राजा नंद दमन और अत्याचारों पर तुला था और यूनानी भी देश पर बार-बार आक्रमण करता था। इन हालात के चलते समाज में भय और आतंक का माहौल व्याप्त हो रहा था। जनता इस आतंक और अत्याचार से मुक्ति चाहती थी।ऐसे में चाणक्य ने एक प्रतिभावान युवक चंद्रगुप्त को आगे किया और उनका साथ लेकर दक्षिण तथा पंजाब का दौरा किया। सहायता के लिए सेना इकट्ठी की और सभी आक्रमणकारियों को सदा के लिए विमुख कर दिया। लौटे तो नंद से भी गद्दी छीन ली। चाणक्य ने चंद्रगुप्त का चक्रवर्ती राजा की तरह अभिषेक किया और स्वयं धर्म प्रचार तथा विद्या विस्तार में लग गए। आजीवन वे अधर्म अनीति से मोर्चा लेते रहे। निस्संदेह उन्होंने यह कार्य अपनी महाबुद्धि के दम पर ही किया

चाणक्य की तर्क-शक्ति-

1-  एक दिन चाणक्य का एक परिचित उनके पास आया और उत्साह से कहने लगा, 'आप जानते हैं, अभी-अभी मैंने आपके मित्र के बारे में क्या सुना है?' 

चाणक्य अपनी तर्क-शक्ति, ज्ञान और व्यवहार-कुशलता के लिए विख्यात थे। उन्होंने अपने परिचित से कहा, 'आपकी बात मैं सुनूं, इसके पहले मैं चाहूंगा कि आप त्रिगुण परीक्षण से गुजरें।' 

उस परिचित ने पूछा - 'यह त्रिगुण परीक्षण क्या है?' 

चाणक्य ने समझाया- 'आप मुझे मेरे मित्र के बारे में बताएं, इससे पहले अच्छा यह होगा कि जो कहें, उसे थोड़ा परख लें, थोड़ा छान लें। इसीलिए मैं इस प्रक्रिया को त्रिगुण परीक्षण कहता हूं। इस कसौटी के अनुसार जानना जरूरी है कि जो आप कहने वाले हैं, वह सत्य है। आप खुद उसके बारे में अच्छी तरह जानते हैं?' 

'
नहीं,' - वह आदमी बोला, 'वास्तव में मैंने इसे कहीं सुना था। खुद देखा या अनुभव नहीं किया था।

'
ठीक है,' - चाणक्य ने कहा, 'आपको पता नहीं है कि यह बात सत्य है या असत्य। 

दूसरी कसौटी है -'अच्छाई। क्या आप मुझे मेरे मित्र की कोई अच्छाई बताने वाले हैं?' 'नहीं,' - उस व्यक्ति ने कहा। 

इस पर चाणक्य बोले,' जो आप कहने वाले हैं, वह न तो सत्य है, न ही अच्छा। चलिए, तीसरा परीक्षण कर ही डालते हैं।' 'तीसरी कसौटी है - उपयोगिता। जो आप कहने वाले हैं, वह क्या मेरे लिए उपयोगी है?' 

'
नहीं, ऐसा तो नहीं है।' सुनकर चाणक्य ने आखिरी बात कह दी।

आप मुझे जो बताने वाले हैं, वह न सत्य है, न अच्छा और न ही उपयोगी, फिर आप मुझे बताना क्यों चाहते हैं?'